आओ दिवाली पर ले प्रण

बदलते परिवेश में हम अपनी परम्पराओं को छोड़ते चले जा रहे हैं। ये वक़्त का तकाजा है या समय की या समझ की कमी। अब वो बात कहाँ त्यौहारों में दिवाली जहाँ जगमगाती थी अपनो के साथ, कॉलोनी वालों के साथ अब तो बस यादें रह गयी हैं उस दिवाली की चमक की। अब बस दिखावा रह गया है सेल्फी एवं वीडियो सोशल मीडिया पर डाउनलोड करके ज्यादा से ज्यादा लाइक पाने लेकिन क्या वास्तव मे यही खुशी है त्यौहारों की। पहले दीपक जलाते थे चारों तरफ घी के या तेल के अब इसकी जगह भी चाइनीज लाइट्स ने ले ली है। 


"वो जमाना था पुराना क्यों वो यादों के पुराने पन्ने पलटते हो, 
वो दौर था तुम्हारा हमारा क्यों आज के दौर को बुरा बताते हो। 
सब नजरिये का धोखा है वो दौर भी हमारा था आज का दौर भी हम खुद बनायेगे, 
क्यों याद मे पीसकर हम जिये खुद का पुराना जमाना रिवाज दोहराए"


इस दिवाली क्यों ना हम अपने आस पास, अपने घरों मे तेल के दीपक जलाये और कृतिम रोशनी का इस्तेमाल ना लाये, इसे बिजली का इस्तेमाल तो कम होगा ही साथ मे ही मिट्टी के दीपक बनाने वालो के घर भी दिवाली अच्छे से मन पायेगी। क्या हम सब ये कोशिश करके सब तरफ दिवाली की असली चमक ला पायेंगे, क्यों नही हम चारों तरफ वो दिवाली वाली पुरानी चमक लाएँगे, अपने से बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लेगे। पुराने दिनों की तरह बिना सेल्फी लिए हम पहले दीपक जलाकर, लक्ष्मी पूजन विधि विधान के साथ करके पुराने दिनों की तरह रिश्तेदारों को कॉलकरेगे, ना की आज के परिवेश की तरह मेसेज फॉरवर्ड। इसमे अपनत्व कहाँ होता है जो विचारों के आदान प्रदान मे होता है।


 "काश वो दिन आये ऐसा इस बार हम सोच ना पाए क्योंकि इस बार ये सपना साकार करना है इस दिवाली कुछ अपने दिल को सूकून देना है। "